हज़रत ख़्वाजा शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह के खुलफ़ा व अज़वाज व औलाद,
आप ने हक़ का रास्ता दिखा दिया :- एक बार हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह शाह राह (सड़क) पर लेते हुए थे के गैर मुस्लिमो का एक गिरोह गुज़रा उन में से एक ने बतौरे हिकारत आप को ठोकर मारी और कहा: हमें रास्ता बताओ आप ने उठते ही फ़रमाया “लाइलाहा इलल्लाहु मुहम्मदुर रसूलुल्लाह” आप रहमतुल्लाह अलैह की ज़बान से कलमा तय्यबा जारी होता था के गैर मुस्लिमो का पूरा गिरोह कलमा पढ़ कर मुशर्रफ बा इस्लाम हो गया,
आप की दीनी ख़िदमात :- हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह ने पूरी ज़िन्दगी मख़लूक़े खुदा की रहनुमाई में बसर की,
अपने फ़ज़्लो कमाल और इरफ़ान व हिदायत से आलम को मुनव्वर व ताबां किया, लाखों भटके हुए लोगों को राहे रास्त दिखाई, आपने आरिफाना व सूफियाना कलाम से इश्को मुहब्बत के ऐसे फूल खिलाए के जिनकी खुशबू आज भी महिक रही है,
लोगों के दिलों में इश्के हकीकी की ऐसी शमा रोशन की के आज तक लोग उससे मुस्तफ़ीज़ हो रहे हैं,
मुर्दा दिलों को जिला बख्शी, सिसकते बिलकते लोगों पर दस्ते शफ़क़त फेरा, बेशुमार लोगों को मंज़िले मक़सूद तक पहुंचाया, आप खुद फरमाते हैं: इस फ़क़ीर ने लाखों बेशुमार तालिबों को अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त तक पहुँचाया है जिन के हालात की किसी को खबर नहीं,
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हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह की तसानीफ़ :- हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह का अंदाज़े तसव्वुफ़ अछूता, जुदा गाना और अनमोल है आप ने तक़रीबन एक सौ चालीस 140, क़ुतुब तसव्वुफ़ के मौज़ो पर लिखीं मगर इन में से सिर्फ 30, ऐसी हैं, जो छप कर आरास्ता हुईं,
इस वक़्त जो क़ुतुब असली या तराजिम की सूरत में छप चुकी हैं, उन में से चंद के नाम ये हैं,
अकले बेदार, अबीयाते सुल्तान बाहू, ऐनुल फ़क़्र, मिफ्ताहुल आरफीन, मुहब्बते असरार, ऐनुल आरफीन, शमशुल आरफीन, गंजुल असरार, इन में से पंजाबी अबीयात को नुमाया हैसियत हासिल है, जब तक फ़ारसी तसानीफ़ तराजिम या मखतूतात की सूरत में मन्ज़रे आम पर न आयी थीं आप की वजह शुहरत बतौरे सूफी शायर आप के यही अबीयात थे, हुसूले बरकत के लिए अबीयाते बाहू का एक शेर मुलाहिज़ा कीजिये,
हर एक ईमान की सलामती चाहता है लेकिन इश्क की सलामती चाहने वाला कोई कोई होता है, ईमान चाहते हैं मगर इश्क से कतराते हैं, ये देख कर हमारे दिल में तो गैरत भड़क उठती हैं,
यानि हर मुस्लमान के लिए ज़रूरी हैं के वो ईमान के दरजात बढ़ाने में कोशिश करता रहे, लेकिन ईमान के आखरी दर्जे पर एक सतह ऐसी आ जाती हैं,
जिसे सूफ़ियाए किराम इश्के इलाही कहते हैं, इस सतह पर क़दम रखते हुए लोग कतराते हैं, क्यूंकि यहाँ हर किस्म की मस्लिहतें अपने आप से अलग करनी पढ़ती हैं, और कोई फैसा कुन मरहला आ जाए तो हक़ की खातिर सर धड़की बाज़ी लगानी पढ़ती हैं और चूँकि हकीकी सूफी इश्कि की क़द्रो कीमत और क़ुव्वतो ताक़त से वाक़िफ़ होता हैं लिहाज़ा जब आम मोमिनो की कम हिम्मती और हिचकिचा हट को देखता हैं तो जोशे गैरत की वजह से इश्क के दाएरे में दाखिल हो जाता हैं, और उस की सारी शराइत क़बूल कर के इश्के इलाही में ही ज़िन्दगी बसर कर देता है, फिर यही इश्क इस का सरमायाए हयात बन जाता है,
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हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह के चंद मलफ़ूज़ात :- राहे सुलूक पर चलने वाले के लिए चंद बातें लाज़िम हैं,
रात को अकेला रह कर यादे इलाही में मशगूल (बीजी) रहे अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की ज़ात से उन्सो रिफ़ाक़त मुहब्बत व क़ुर्ब रखे,
हर रात को क़ब्र की रात समझे क्यूंकि क़ब्र में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की रहमत के सिवा और कोई अनीसो रफ़ीक़ न होगा,
जब दिन चढ़े और लोग जागें तो उसे क़यामत का दिन समझे के क़ब्र से निकल कर खड़ा हुआ है,
हर दिन अपने लिए क़यामत का दिन समझे और हर दिन बुरे आमाल के मुहास्बे में गुज़ारे,
मुर्शिदे कामिल अपने मुरीद को बातनि तरीके से हुज़ूर रसूले करीम सलल्लाहु अलैहि वसल्लम की बारगाह तक पहुंचा देता है इस हकीकत को अहमक और मुर्दा दिल किया जाने ख़्वाह वो तमाम उमर इल्म पढ़ता रहे,
जो शख्स इख़्लासो यक़ीन से हुज़ूर रसूले करीम सलल्लाहु अलैहि वसल्लम की खिदमत में ये अर्ज़ करे: या रसूलुल्लाह सलल्लाहु अलैहि वसल्लम मेरी फर्याद को पहुंचिए तो रसूले करीम सलल्लाहु अलैहि वसल्लम उसी वक़्त तशरीफ़ ला कर ज़्यारत से मुस्तफ़ीज़ फरमाते हैं और फर्याद करने वाला आप की खाके पा को सुरमा बनाता है, लेकिन बे इखलास और बे यक़ीन अगर दिन रात भी नवाफिल अदा करता रहे तब भी हिजाब में ही रहेगा,
जो शख्स हयातुन नबी सलल्लाहु अलैहि वसल्लम को नहीं मानता बल्कि मोत जनता है उस के मुँह में ख़ाक और वो दोनों जहाँ में सियाह रू (कला चेहरे वाला) है और ज़रूर ज़रूर शफ़ाअत से महरूम रहेगा,
आप के खुल्फ़ए किराम :- चंद मशहूर खुलफ़ा के नाम ये हैं,
- हज़रत सय्यद मूसा शाह गिलानी अल मारूफ हज़रत मूसन शाह (बाबुल इस्लाम सिंध)
- हज़रत मुल्ला मुआली मेस्वी, अख़वंद मुअलि कर्क ज़िला सब्बि,
- हज़रत सुल्तान नोरंग ख़ातिरान (बहावल पुर)
- हज़रत सुल्तान हमीद (ज़िला भककर)
- हज़रत सुल्तान वली मुहम्मद (बहावल पुर) रहमतुल्लाहि तआला अलैहिम,
आप की औलाद व अज़वाज :- आप ने चार शादियां कीं, जिन से आठ बेटे और एक बेटी पैदा हुई आप ने सब को दिनी तालीम दिवाई,
आप के सज्जादा नशीन :- हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह के बड़े बेटे हज़रत सुल्तान वली मुहम्मद रहमतुल्लाह अलैह पहले सज्जादा नशीन हुए और अब तक ये सिलसिला इन ही की औलाद में जारी है,
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आप की वफ़ात व मदफन :- हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह ने 63, साल इस दारे फानी में दीने इस्लाम की तालीमात आम कीं, और मुग़ल बाद शाह औरंज़ेब आलम ग़ीर रहमतुल्लाह अलैह के अहद में 1, जमादिउल उखरा 1102, हिजरी बा मुताबिक 2, मार्च 1691, ईस्वी जुमे की रात को विसाल फ़रमाया
पहले आप का मज़ारे मुबारक दरियाए चुनाब के किनारे पर क़िला कहिरगान पर था जिस के चरों जानिब पक्की दीवारें थीं, “अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की उन पर बेशुमार रहमत हो और उनके सदक़े हमारी मगफिरत हो”
हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह के विसाल के 77, साल के बाद भी जिस्म व कफ़न सलामत :- तक़रीबन 77, साल बाद 1179, हिजरी में दरियाए चुनाब में तुग़यानी आयी क़रीब था के पानी मज़ार मुबारक तक पहुंच जाता, आप ने ख्वाब में अपने सज्जादा नशीन को हुक्म फ़रमाया के मुझे कहीं और मुन्तक़िल कर दें, अगले दिन मुरीदों ने आप के जिस्म को मुन्तक़िल करने के लिए ज़मीन खोदना शुरू की मगर जिस्म मुबारक नहीं मिल सका,
मुरीद बड़े परेशान हुए अगली रात फिर सज्जादा नशीन से फ़रमाया: कल सुबह नक़ाब पोश बुज़रुग सब्ज़ लिबास में आएंगें और क़ब्र का निशान बताएंगें,
चुनाचे अगले दिन सब्ज़ लिबास वाले बुज़रुग तशरीफ़ लाए और क़ब्र मुबारक की निशान दही करदी, हज़ारों लोगों की मौजूदगी में जब जिस्म मुबारक बाहर निकला गया तो सब ने देखा के आप का जिस्म व कफ़न मुबारक सही सलामत है फ़िज़ा में कई मील दूर तक खुशबू फ़ैल गई, रेशे मुबारक (दाढ़ी) से पानी के क़तरे टपक रहे थे और यूं महसूस होता था के जैसे अभी सूए हैं,
इस वाक़िए के तक़रीबन 158, साल बाद 1336, हिजरी बा मुताबिक 1918, ईस्वी में एक बार फिर दरियाए चुनाब में शदीद सैलाब आया और पानी की लहरें मज़ार मुबारक के इहाते को छूने लगीं लिहाज़ा आप के जिस्म मुबारक को तीसरी जगह मुन्तक़िल करना पड़ा उस वक़्त भी आप का जिस्म व कफ़न मुबारक सही सलामत था,
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आप के मज़ारे मुबारक की आराइश व तकमील :- आप के मज़ारे मुबारक की आराइश व तकमील का काम हज़रत हाजी मुहम्मद अमीर सुल्तानी रहमतुल्लाह अलैह के दौर में सर अंजाम पाया जब से अब तक सुल्तानुल आरफीन हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह का मज़ारे मुबारक:
क़स्बा दरबारे सुल्ताने बाहू गढ़ महा राजा तहसील शोर कोट झंग पाकिस्तान में मर जाए खासो आम है, जहाँ हज़ारों अक़ीदत मंद अपनी गर्दन झुकाते और मुरादों से अपनी ख़ाली झोलियाँ भर कर जाते हैं,
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विसाल के बाद आप की करमत :- हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह के मज़ार मुबारक की देहलीज़ पर एक बेरी का दरख्त था जिससे ज़्यारत करने वालों को परेशानी करने का सामना करना पढ़ता, मगर बतौरे अदब उसे नहीं काटा जाता,
एक दिन एक नबीना साहब मज़ार मुबारक पर हाज़री के लिए आए तो उनकी पेशानी दरख्त से टकरा कर ज़ख़्मी हुई, और खून बहने लगा खुलफ़ा व मुजाविरों ने उन्हें तसल्ली दी और इलाज करवा दिया और बाहिमी मशवरे से अगले दिन उस दरख्त को कटवाने का इरादा कर लिया ताके आने वालों को किसी किस्म की परेशानी न हो,
हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह के एक खलीफा मुहम्मद सिद्दीक़ रहमतुल्लाह अलैह भी इस मशवरे में शरीक थे, जब रात हुई तो खवाब में हज़रत शैख़ सुल्तान बाहू रहमतुल्लाह अलैह की ज़्यारत से मुशर्रफ हुए आप फरमा रहे थे ऐ मुहम्मद सिद्दीक हमारे दरख्त को क्यों काटते हो? वो खुद दूर चला जाएगा, सुबह देखा तो वाक़ई वो दरख्त अपनी जगह से दस हाथ के फासले पर खड़ा था
मआख़िज़ व मराजे (रेफरेन्स) :- मनाक़िबे सुल्तानी, बाहू ऐन या हू, अबियाते सुल्तान बाहू, फ़ैज़ाने सुल्तान बाहू, तज़किराए औलियाए पाकिस्तान जिल्द दो, गंजुल असरार, कशफ़ुल असरार, तज़किराए औलियाए हिन्दो पाक,
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